Wednesday, October 14, 2009

आटा चक्की (दूसरा पीपा)

... चक्की चल रही है और
निकल रहा है आटा
एकदम शुद्ध... एकदम ताज़ा...
ये है जिन्दगी का आटा

ले लो... ले लो... सब ले लो
बनाओं रोटियां गरम गरम...
जो हैं पोष्टिक और नरम नरम
ये हैं बहुत ही अनमोल
पर नहीं लूँगा इसका कोई मोल

सबको दूंगा... पर उन्हें न दूंगा
क्योंकि वो मिलायेंगे इसमें...
लालच का नमक... नफरत का पानी
और उतारेंगे राजनीति की रोटियाँ...
ज़हर भरी, कड़क और बेजानी

पर तुम ज़रूर आना... ले कर जाना
ये स्वादिष्ट और अनमोल आटा
क्योकि है ये...
एकदम शुद्ध... एकदम ताज़ा...
ये है जिन्दगी का आटा


पुनीत मेहता
५ सितम्बर २००९

आटा चक्की (पहला पीपा)

मैं एक चक्की वाला हूँ
रोज़ कुछ न कुछ पीसता रहता हूँ...
... कभी सपने और आशाएं
... कभी प्यार और विश्वास
... कभी विचार और भावनाएं
... कभी उम्मीद और हकीकत
... कभी शब्द और अभिवयक्ति
और निकलता हूँ...
सफ़ेद, शुद्ध, महीन जिन्दगी का आटा...
जीवन से भरी नरम नरम रोटियां बनाने को...



(क्रमशः)

Tuesday, October 13, 2009

चुम्बक

उस दिन अलमारी के उपर
स्कूल पुराने बस्ते में
एक चुम्बक मिल गया...
और मिलीं कुछ छोटी छोटी पेन्सिलें,
एक रबड़, कुछ छोटे गोल पत्थर,
कुछ कौडियाँ, कागज़ के कुछ पुर्जे,
कुछ सरकंडे, थोडी सी मिटटी और
उसकी एक छोटी सी... मटमैली सी तस्वीर

हमेशा सोचता था उन दिनों को...
क्यों नहीं भूलता उन दिनों को
ये तो शायद वो बस्ते में रखा
चुम्बक ही है जिसने...
रोके रखा है यादों को... जिन्दगी को


पुनीत मेहता
६ सितम्बर २००९

Tuesday, September 1, 2009

परी, सपने और...

कल रात वो परी फिर आयी थी
कुछ सपने छोड़ गयी
कुछ गीले... कुछ सूखे...
गीलों को सूखाने लगा और
सूखे सपनो को देखने लगा
पहले मे खुश था... सभी प्रसन्न थे
दूसरे मे हस रहा था... लोग भी हस रहे थे
कहीं बच्चों की मासूम किलकारियां थीं...
तो कही अपने ठहाके सुनायी दिये
किसी में साफ़ खुला आसमान था तो...
किसी में ठंडी बयार चल रही थी
कही खुशहाल लहलहाते खेत थे तो...
कही हसती खिलखिलाती दावते थी
किसी में हरा भरा आशियाना था तो...
किसी में अपनों से भरा पूरा घर था
तभी एक दस्तक से चौंका...
लगा परी फिर आ गयी...
देखा तो अखबार आया था
असलियत और वास्तविकता तो साथ लाया था
सपने समेटे... अखबार खोल बैठ गया
..... में धमाके हुए... इतने मरे
..... में जूते चप्पल और कुर्सियां चली
टेलीविजन ने सीधा प्रसारण दिखाया...
देश शर्मिंदा हुआ
...... में किया उस अबला को किया वस्त्रहीन
देश स्तब्ध रह गया
...... इतने बलात्कार... इतनी हत्याएँ... इतनी चोरियां
और कमिश्नर का दावा... कानून व्यवस्था बिलकुल ठीक है
...... पीने के पानी और सांस लेने को हवा की किल्लत्त
...... प्रदेश के पास पैसे की कमी
...... अपनी प्रतिमाओं को स्थापित करने...
उनका अनावरण करने और
फिर दावतों में करोडों फूंके
...... नमक, मसाले, सब्जियां, दालें उछली
..... कारें, बसें, रेलगाडियां लुडकी
अरे! ये सब क्या है? और वो क्या था?
क्या परी नहीं आयी थी? आयी थी शायद...
क्योंकि सपने अब भी समेटे हुए रक्खे थे...
मेरे पास...
सूखते हुए...
सूखने दो... सुख जायेंगे तो फिर से देखूंगा



पुनीत मेहता
३१ अगस्त २००९

Friday, August 28, 2009

अपना...

जिसे ख्वाबों में देखा वो कभी न मिला...
जिसका तसुवर भी न था वोही अपना निकला

जब भी नज़र उठाई कोई अपना ना मिला...
जब साया ही अपना न था तो औरों से क्या गिला.

जब भी गिला किया पलट के हमे शिकवा ही मिला
हमेशा मेरे.. अपने.. तुम्हारे.. पराये.. किया पर कुछ भी ना मिला.


पुनीत मेहता
अगस्त २६, २००९

Tuesday, August 25, 2009

हम आज़ाद हैं...

इन्कलाब जिंदाबाद... वन्दे मातरम्...
अंग्रेजों भारत छोडो... तोडी बच्चों वापस जाओ
भागो भागो.... फायर... हे राम....
चारों तरफ मची थी अफरा तफरी
चीख पुकार थी... लाशें थी बिखरी
यकायक सब शांत हो गया
एक खामोश सन्नाटा पसर गया
पुरानी यादों का सपना था जो अब सो गया
खुश हुआ कि ये सब तो बीत गया
देश तो कभी का आजाद हो गया
खुश हो रहा था कि शोर फिर शुरू हो गया
चीख पुकार की आवाजों से माहोल फिर उग्र हो गया
लगा कि सपना फिर से तो नहीं शुरू हो गया
और शांति... सुकून भरे जीवन का भ्रम टूट गया
फिर चलने लगी गोलियां... धमाके भी हो गए
लगे लोग चीखने चिल्लाने... लाशों में अपने खो गए
सब वोही तो आवाजें है सपने वाली
पर कहाँ है वो बुलंद नारे लगते लोग
वो जान बचा के भागते तोडी बच्चें
वो सब नहीं हैं क्योकि अब देश आज़ाद हैं
हम आज़ाद हैं...
अपने ही लोगों को खुद ही लूटने को
हम आज़ाद हैं...
अपनी लाशों को सफेदपोश गिद्धों नुचवाने को
हम आज़ाद हैं... ये आजादी हैं... शायद...?


पुनीत मेहता
९ अगस्त २००९

काश

एक तेज़ आंधी सी आती...
कभी ठंडी बयार बन जाती
एक उफनती नदी सी बहती...
कभी एक शांत समंदर बन जाती
एक चुलबुली चिड़िया सी चहकती...
कभी रंग बिरंगी तितली बन उड़ती
एक मासूम बच्ची सी बतियाती...
कभी अम्मा बन ज्ञान बघारती
शायद ऐसी होती है बहन प्यारी...
काश मेरी भी होती एक गुड़िया दुलारी
काश...


पुनीत मेहता
२८ जुलाई २००९

थोड़ा थोड़ा

आज फिर से रब को
अर्जी दे आया हूँ...
बहुत ज्यादा नहीं बस
थोड़ा थोड़ा ही मांग आया हूँ
थोड़ी सी हँसी... थोड़ी सी खुशी
थोड़ा सा आराम... थोड़ा सा सुकून
थोड़ी सी शांति... थोड़ी सी प्रार्थना
थोड़ा सा प्यार... थोड़ा सा इश्क
थोड़ी सी इंसानियत... थोड़ी सी रूहानियत
थोड़ा सा सूरज... थोड़ी सी चांदनी
थोड़ी सी साँसें... थोड़ी सी जिन्दगी
थोड़ा सा आसमां... थोड़ी सी जमीं
थोड़े से शब्द... थोड़ी सी आवाजें
थोड़ी सी रूह... थोड़ी सी आत्मा
कह आया...
सब नहीं दे सकते तो थोड़ा दे दें...
तुम्हारी अब भी चलती है सबको दिखा दे


पुनीत मेहता
३० जुलाई २००९

Monday, July 20, 2009

सुबह

सुनी गलियों ने फिर आवारा अँधेरे से पूछा...
हमसे मिलने सुबह कब आयेगी ?
तुम्हारी प्रियसी रात कब जायेगी ?
अँधेरा हँसा... रात खिलखिलाई...
सुनसान शोर के बढ़ने से गलियां चिल्लाई...
अँधेरी रात की आवाजें और गहरी होती गयी...
गलियाँ और भी तंग होती गयी...
पर याद है ना...
सुबह से पहले रातों का अँधेरा सबसे गहरा होता है.

पुनीत मेहता

Sunday, July 19, 2009

शहर मैं ....

मैं इस शहर मैं हूँ उस शहर में जहाँ ...
लोगो की भीड़ है पर ...
हर कोई अकेला है ...
कह्कहो का शोर है पर ...
इस शोर में खोखली गूँज है...
हर चेहरा मुस्कुराता है पर ...
फिर भी दर्द न छुप पाता है ...
हर कोना मकानों से ढका है पर ...
फिर भी घरो का अकाल है ...
हर चीज़ चमकदार है पर ...
चेहरों से चमक गायब है ...
हर कोई दौड़ रहा है पर ...
थका थका भी लग रहा है ...
सड़कों पर बहूत रोशनी है पर ....
बहुत सूनी, वीरान और लम्बी है ....
रफ्तार तेज और उम्मीद ऊंची है पर ...
फिर भी जीवन धीमा बूझा बूझा है ...
यहाँ रिश्तो की भीड़ है पर ....
फिर भी अपनों की तलाश है ...
पर यही तो वो शहर है ...
जहाँ मैं हूँ .... हम हैं .... हम सब हैं ।

पुनीत मेहता

Thursday, July 16, 2009

क्षितिज को...

आज हवा फिर तेज़ है
शाम भी कुछ गीली... कुछ नम है

जिन्दगी की डोर पर कुछ
नए पुराने दिन सूख रहे हैं
रंग बिरंगे सपनो की चिमटियों के सहारे...
पता नहीं कब से... कब तक...

कितना धोया... कितना पोंछा...
यादों के निशां जाते ही नहीं
कितना झटका... कितना खींचा...
जीवन की सलवटे निकलती ही नहीं

कितना धोता हूँ...
पर उन दिनों को साफ़ नहीं कर पाता हूँ
कितना सुखाता हूँ...
पर इन आसुओं की नमी सूखती ही नहीं

पर...
बदलेगा ज़रूर बदलेगा ये मौसम...

पुराने दिनों को तह करके अंदर रख दूंगा
और फिर नए दिनों को ले कर…
सुनहरे भविष्य की चमकती धूप में
फिर से निकलूंगा...
एक नए सफ़र पे...
एक नयी दिशा में...
एक नए क्षितिज को...


पुनीत मेहता
१५ जुलाई २००९

Monday, June 22, 2009

क्या....कौन?

मैं क्या हूँ ?
एक पुत्र!
एक भाई!
एक पति या...
एक पिता?

मैं कौन हूँ?
एक जानकार!
एक दोस्त!
एक पडोसी या...
एक अजनबी?

मैं क्या हूँ... कौन हूँ?
शायद एक आदमी...
काश एक इंसान!

पुनीत मेहता
11 मई 2009

लिखू …क्या ?

आज फिर बहुत बेचैनी है...
कुछ लिखने की.
आज फिर मन बहुत व्यथित है...
कुछ न लिख पाने से.
लिखना चाहता हूँ पर विषयवस्तु नहीं मिलती
वो कहते है देखो सब्जेक्ट भरा पड़ा है...
पर मुझे क्यों नहीं दिखता?
किस पर लिखू...
रोज़ गिरती लाशों पर! या
इन लाशों पर सिकती राजनेतिक रोटियों पर!
क्या लिखू...
बघेर भूखे बच्चों की कहानियां या
नित नित बेरोजगार होते नोजवानों की दास्ताँ?
कैसे लिखू कि...
किस तरह रिश्ते कलुषित होते जा रहे हैं या
कहाँ को आये थे और कहाँ चले जा रहे हैं
एक विषय तो बता दो...
कुछ तो सुझा दो...
कही कुछ तो सुहाना दिखे...
जिन्हें इन कागजों पर उतार सकु
कुछ देर ही सही एक...
शांत, शीतल, सुन्हेरे भविष्य को निहार सकु.


पुनीत मेहता
27 मई 2009

लोग

(ये रचना बहुत साल पहले दूरदर्शन पर प्रसरित्त एक हास्य - व्यंग कवि सम्मेलन में सुनी एक कविता से प्रेरित्त है)
एक आदमी काम कर रहा था
कि कुछ लोग आ गए...
बोले...
देखो साला काम कर रहा है
आदमी ने काम करना बंद कर दिया
तो लोग बोले...
देखो साले ने काम बंद कर दिया
आदमी कुछ न बोला... चुपचाप लोगों को देखता रहा
तभी कुछ और लोग आ कर भीड़ में जुड़ गए
और सब मिल कर आदमी को नसीहते देने लगे
आदमी परेशान हो गया और उसने दरवाजा बंद कर लिया
तो कोई बोला...
देखो साले ने दरवाजा बंद कर लिया
पर लोग वही जमे रहे... चिल्लाते... गालियाँ देते...
एक घंटा बीत गया...
एक दिन बीत गया...
एक हफ्ता बीत गया...
एक साल बीत गया...
पर लोग नहीं गए...
लोगों के ठट्ठ के ठट्ठ जमा होते रहे...
चीखते रहे... चिल्लाते रहे... गलियां देते रहे...
पर आदमी ने दरवाजा नहीं खोला और...
फिर लोगो में से कोई बोला...
चलो दरवाजा तोड़ देते हैं
दरवाजा टूटा तो देखा आदमी मर पड़ा था
तो लोगों में से कोई बोला...
देखो साला मर गया
और तब लोग वहां से हटने लगे
अब सुना है कि...
लोग कही और जमा हो रहे है

पुनीत मेहता
5 मई 2009

Sunday, April 19, 2009

किरणें

(सन्दर्भ – धूप की किरणें – इश्वर / भगवान और दो किरणें प्रकाश की – दो बेटियाँ )

एक धूप का टुकडा अक्सर आता
उपर वाली खिड़की से झांकता
कभी मुस्कुराता… कभी खिलखिलाता…
बार बार आता, बस टुकुर टुकुर ताकता
और फिर से ओझल हो जाता

पर उस दिन वो आया... मुस्कुराया...
एक चकाचोंध करता प्रकाश जगमगाया
फिर अँधेरा छाया, कुछ भी समझ ना आया...
न वो धूप का टुकडा ही नज़र आया

अचानक कही फिर कुछ टिमटिमाया...
एक अलोकिक प्रकाश… दो किरणों का
चांदनी सी उजली किरणें...
हसती... मुस्कुराती... खिलखिलाती किरणें...
चोरासी पूरी चाँद रातों को रोशन करके...
... अब और भी ज्यादा चमकती किरणें

अब फिर झांकता है वो धूप का टुकड़ा...
अपनी दोनों किरणों के तेज भर्रे चेहरे में
अपना प्रतिबिम्ब छोड़ता... हर्षाता... याद दिलाता...
... अनगिनत पूरे चाद की रातों को रोशन करेंगी ये किरणें
... अपने तेज से दुनिया को सम्मोहित्त करेंगी ये किरणें
हसती, मुस्कुराती, खिलखिलाती किरणें... मेरी किरणें


पुनीत मेहता
22 दिसम्बर 2007

Thursday, February 12, 2009

साथ

आज मैं नहीं हूँ...
तुम्हारे पास
पर तुम हो मेरे साथ
यही कही आसपास

हम नहीं हैं पास पास
पर रहेंगे हमेशा साथ
ये दूरी तो है बस
एक परदे की मानिंद
तुम देख नहीं पाते हो
पर मैं हूँ तुम्हारे ही साथ...
यहीं कहीं आसपास

एक इंतजार है...
फिर से मिलने का
तुम्हारे साथ रहने का
एक भरपूर जीवन जीने का
बस रखना ये विश्वास
मैं हूँ हमेशा तुम्हारे साथ…
यहीं कहीं आसपास

पुनीत मेहता

12 फ़रवरी 2009

Tuesday, February 3, 2009

ताना बाना

जीवन के ताने मे जिन्दगी का
बाना कम पड़ गया है और…
लोगों की इस भीड़ मे शहर का
आँचल तंग पड़ गया है.

आवाजों के इस शोरगुल में
शब्दों का अकाल पड़ गया है और...
ख्वाहिशों के इस जंगल में
वास्तविकता का वृक्ष सुख गया है.

ओ जुलाहे! तेरा करघा क्यों चुप है!
क्यों ये जीवन में जिन्दगी नही बुन रहा है!
ऐ जुलाहे! इस करघे को फिर चला दे...
इतनी जिन्दगी बुन कि सारे अकाल मिटा दे
... और फिर से चारों ओर
विचारों का बसंत बिखरा दे

पुनीत मेहता
फरवरी 3, 2009