Thursday, July 16, 2009

क्षितिज को...

आज हवा फिर तेज़ है
शाम भी कुछ गीली... कुछ नम है

जिन्दगी की डोर पर कुछ
नए पुराने दिन सूख रहे हैं
रंग बिरंगे सपनो की चिमटियों के सहारे...
पता नहीं कब से... कब तक...

कितना धोया... कितना पोंछा...
यादों के निशां जाते ही नहीं
कितना झटका... कितना खींचा...
जीवन की सलवटे निकलती ही नहीं

कितना धोता हूँ...
पर उन दिनों को साफ़ नहीं कर पाता हूँ
कितना सुखाता हूँ...
पर इन आसुओं की नमी सूखती ही नहीं

पर...
बदलेगा ज़रूर बदलेगा ये मौसम...

पुराने दिनों को तह करके अंदर रख दूंगा
और फिर नए दिनों को ले कर…
सुनहरे भविष्य की चमकती धूप में
फिर से निकलूंगा...
एक नए सफ़र पे...
एक नयी दिशा में...
एक नए क्षितिज को...


पुनीत मेहता
१५ जुलाई २००९

1 comment:

Anonymous said...

I am not saying that poem is good because it's your life & you want some change, god bless you, my best wishes with you.