Sunday, September 21, 2008
वक़्त फिर से रुक गया
बीता हुआ कल फिर सामने आ गया है
फिर एक विस्फोट हुआ है
फिर लाशों का एक अम्बार लग गया है
हर बार कहते हैं अब और नहीं होगा
जाने कब उस सूर्य का उदय होगा
जाने कब इन छितरी हुई लाशों से मुक्ति मिलेगी
जाने कब बारूद के इस ढेर से निजात मिलेगी
जाने वो बाज़ार से जिंदा वापस आएगा
जाने कब ये सफ़र फिर हसीं होगा
न जाने कब ये विश्वास फिर आयेगा
कब ये शहर फिर जीने लायक हो पायेगा
इन्ही सब 'कब' 'जाने' या 'फिर' शब्दों में…
आज फिर से वक़्त रुक गया है
जाने कब ये जीवन फिर से चल पायेगा…
ये बीता हुआ वक़्त गुज़र जायेगा
पुनीत मेहता
21 सितम्बर 2008
Sunday, September 14, 2008
एक सपने की जिन्दगी
एक सपने की जिन्दगी
ये है एक सपने की जिन्दगी
एक पल या शायद कुछ क्षणों की
यह जन्म लेते है गहरी नींद के खुमार में...
बंद सोती आँखों के दरीचो में बसे रहते हैं और
फिर आँख खुलते ही ख़त्म हो जाते हैं
पर छोड़ जाते हैं अपने निशां और कुछ यादें... धुंधली सी
और थोड़ी देर बाद ये यादें भी मिट जाती हैं
रह जाता है उनका एक एहसास... क्षीण सा
और रह जाती है एक हल्की सी उम्मीद
इन सपनो के सच होने की...
पर ये सपने सच नहीं होने चाहिए
इन्हें तो सपनो में दुनिया में बसे रहना चाहिए…
इन्द्रधनुषी रंगों से सजी... आशाओं के बादलों पर विचरण करती…
हकीकत के कठोर धरातल से दूर बसी एक अदभुध दुनिया
हकीकत न सही सपना हे सही
कहीं कुछ तो सुंदर है इस नीरस बेरंग जीवन में
जो जगाये रखता है एक आस को... आने वाला कल सुनहरा है इस विश्वास को
पुनीत मेहता
14 सितंबर 2008
Friday, September 12, 2008
क्या फर्क पड़ता है…
वो सड़क किस फौजी के नाम पर है
बस एक फौजी पदवी के साथ एक उकेरा हुआ नाम है… बेनाम सा
क्या फर्क पड़ता है कि...
वो नाम राम, रहमान, राजिंदर, रोवेन था या कुछ और
आखिर नाम था तो सिर्फ एक फौजी का... अदना सा
क्या फर्क पड़ता है कि...
अगर याद नहीं के वो कौन था... कितनो को याद रखें
यहाँ तो रोज़ नए नाम जुड़ते रहते है अपने नाम के आगे स्वर्गीय लगवाते...
राजनीति के इस हवन में अपनी आहुती देते हुऐ
क्या फर्क पड़ता है कि...
जाने वाला हर नाम अपने पीछे छोड़ जाता है
एक पूरा कुनबा... बेनाम सा
और छोड़ जाता है अपनी मौत से और शहीद होने की पेंशन से जूझते कुछ अपने
हमें क्या... हम तो फिर...
एक और शहर में...
एक और पत्थर पर...
एक और बेनाम सा...
नाम उकेर कर फिर उसे भूल जायेंगे
क्या फर्क पड़ता है...
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पुनीत मेहता
30 अगस्त 2008
Wednesday, September 3, 2008
यादें
आहिस्ता आहिस्ता यू ही गुजरती जाती जिन्दगी
मुठी में रेत सी फिसलती जाती जिन्दगी
अपने निशां छोड़ती जाती ये जिन्दगी
कल भी थी और कल भी होगी ये जिन्दगी
बस ये लोग ना होंगे… पर होंगे उनके ये निशां और
होंगी कुछ यादें… थोड़ी सी... मुट्ठियों में सहेजी हुई।
पुनीत मेहता
जीवन ढूँढती जिन्दगी
तपती धुप मे छाँव ढूँढती जिन्दगी
सुहानी शाम तलाश करती जिन्दगी
अंधेरी रात में चांदनी ढूँढती जिन्दगी
सुबह की चमकती किरण को तलाशती जिन्दगी
आवारा सी गलियों में आशियाना ढूँढती जिन्दगी
प्रेमिका की तलाश में प्रेमी सी भटकती जिन्दगी
भीड़ में इंसानों की तलाश करती जिन्दगी
अपने वजूद की तलाश में भटकती जिन्दगी
चार दीवारों के मकान में घर ढूँढती जिन्दगी
तनहा घर में अपनों को ढूँढती जिन्दगी
थक कर के भी कभी न रूकती जिन्दगी
जीवन ढूँढती जिन्दगी
पुनीत मेहता
विरह
फिर किसी के आने की आहट हुई है…
इस ठहरी हुई जिन्दगी के पानी मे
फिर प्यार का एक कंकड़ गिरा है…
फिर उम्मीदों का एक सैलाब उठा है
ए मौला ! अबकी बार मुझ पर अपनी मेहर बरपा दे…
इन औस की बूंदों को इश्क का समंदर बना दे.
बरसो से सूखे पड़े इस देह की और...
एक सदी से प्यासी इस तपती रूह की प्यास बुझा दे...
ए मौला ! इस बार तो मुझे मेरे रुब से मिला दे.
पुनीत मेहता