Monday, June 22, 2009

क्या....कौन?

मैं क्या हूँ ?
एक पुत्र!
एक भाई!
एक पति या...
एक पिता?

मैं कौन हूँ?
एक जानकार!
एक दोस्त!
एक पडोसी या...
एक अजनबी?

मैं क्या हूँ... कौन हूँ?
शायद एक आदमी...
काश एक इंसान!

पुनीत मेहता
11 मई 2009

लिखू …क्या ?

आज फिर बहुत बेचैनी है...
कुछ लिखने की.
आज फिर मन बहुत व्यथित है...
कुछ न लिख पाने से.
लिखना चाहता हूँ पर विषयवस्तु नहीं मिलती
वो कहते है देखो सब्जेक्ट भरा पड़ा है...
पर मुझे क्यों नहीं दिखता?
किस पर लिखू...
रोज़ गिरती लाशों पर! या
इन लाशों पर सिकती राजनेतिक रोटियों पर!
क्या लिखू...
बघेर भूखे बच्चों की कहानियां या
नित नित बेरोजगार होते नोजवानों की दास्ताँ?
कैसे लिखू कि...
किस तरह रिश्ते कलुषित होते जा रहे हैं या
कहाँ को आये थे और कहाँ चले जा रहे हैं
एक विषय तो बता दो...
कुछ तो सुझा दो...
कही कुछ तो सुहाना दिखे...
जिन्हें इन कागजों पर उतार सकु
कुछ देर ही सही एक...
शांत, शीतल, सुन्हेरे भविष्य को निहार सकु.


पुनीत मेहता
27 मई 2009

लोग

(ये रचना बहुत साल पहले दूरदर्शन पर प्रसरित्त एक हास्य - व्यंग कवि सम्मेलन में सुनी एक कविता से प्रेरित्त है)
एक आदमी काम कर रहा था
कि कुछ लोग आ गए...
बोले...
देखो साला काम कर रहा है
आदमी ने काम करना बंद कर दिया
तो लोग बोले...
देखो साले ने काम बंद कर दिया
आदमी कुछ न बोला... चुपचाप लोगों को देखता रहा
तभी कुछ और लोग आ कर भीड़ में जुड़ गए
और सब मिल कर आदमी को नसीहते देने लगे
आदमी परेशान हो गया और उसने दरवाजा बंद कर लिया
तो कोई बोला...
देखो साले ने दरवाजा बंद कर लिया
पर लोग वही जमे रहे... चिल्लाते... गालियाँ देते...
एक घंटा बीत गया...
एक दिन बीत गया...
एक हफ्ता बीत गया...
एक साल बीत गया...
पर लोग नहीं गए...
लोगों के ठट्ठ के ठट्ठ जमा होते रहे...
चीखते रहे... चिल्लाते रहे... गलियां देते रहे...
पर आदमी ने दरवाजा नहीं खोला और...
फिर लोगो में से कोई बोला...
चलो दरवाजा तोड़ देते हैं
दरवाजा टूटा तो देखा आदमी मर पड़ा था
तो लोगों में से कोई बोला...
देखो साला मर गया
और तब लोग वहां से हटने लगे
अब सुना है कि...
लोग कही और जमा हो रहे है

पुनीत मेहता
5 मई 2009