Monday, July 20, 2009

सुबह

सुनी गलियों ने फिर आवारा अँधेरे से पूछा...
हमसे मिलने सुबह कब आयेगी ?
तुम्हारी प्रियसी रात कब जायेगी ?
अँधेरा हँसा... रात खिलखिलाई...
सुनसान शोर के बढ़ने से गलियां चिल्लाई...
अँधेरी रात की आवाजें और गहरी होती गयी...
गलियाँ और भी तंग होती गयी...
पर याद है ना...
सुबह से पहले रातों का अँधेरा सबसे गहरा होता है.

पुनीत मेहता

Sunday, July 19, 2009

शहर मैं ....

मैं इस शहर मैं हूँ उस शहर में जहाँ ...
लोगो की भीड़ है पर ...
हर कोई अकेला है ...
कह्कहो का शोर है पर ...
इस शोर में खोखली गूँज है...
हर चेहरा मुस्कुराता है पर ...
फिर भी दर्द न छुप पाता है ...
हर कोना मकानों से ढका है पर ...
फिर भी घरो का अकाल है ...
हर चीज़ चमकदार है पर ...
चेहरों से चमक गायब है ...
हर कोई दौड़ रहा है पर ...
थका थका भी लग रहा है ...
सड़कों पर बहूत रोशनी है पर ....
बहुत सूनी, वीरान और लम्बी है ....
रफ्तार तेज और उम्मीद ऊंची है पर ...
फिर भी जीवन धीमा बूझा बूझा है ...
यहाँ रिश्तो की भीड़ है पर ....
फिर भी अपनों की तलाश है ...
पर यही तो वो शहर है ...
जहाँ मैं हूँ .... हम हैं .... हम सब हैं ।

पुनीत मेहता

Thursday, July 16, 2009

क्षितिज को...

आज हवा फिर तेज़ है
शाम भी कुछ गीली... कुछ नम है

जिन्दगी की डोर पर कुछ
नए पुराने दिन सूख रहे हैं
रंग बिरंगे सपनो की चिमटियों के सहारे...
पता नहीं कब से... कब तक...

कितना धोया... कितना पोंछा...
यादों के निशां जाते ही नहीं
कितना झटका... कितना खींचा...
जीवन की सलवटे निकलती ही नहीं

कितना धोता हूँ...
पर उन दिनों को साफ़ नहीं कर पाता हूँ
कितना सुखाता हूँ...
पर इन आसुओं की नमी सूखती ही नहीं

पर...
बदलेगा ज़रूर बदलेगा ये मौसम...

पुराने दिनों को तह करके अंदर रख दूंगा
और फिर नए दिनों को ले कर…
सुनहरे भविष्य की चमकती धूप में
फिर से निकलूंगा...
एक नए सफ़र पे...
एक नयी दिशा में...
एक नए क्षितिज को...


पुनीत मेहता
१५ जुलाई २००९