(ये रचना बहुत साल पहले दूरदर्शन पर प्रसरित्त एक हास्य - व्यंग कवि सम्मेलन में सुनी एक कविता से प्रेरित्त है)
एक आदमी काम कर रहा था
कि कुछ लोग आ गए...
बोले...
देखो साला काम कर रहा है
आदमी ने काम करना बंद कर दिया
तो लोग बोले...
देखो साले ने काम बंद कर दिया
आदमी कुछ न बोला... चुपचाप लोगों को देखता रहा
तभी कुछ और लोग आ कर भीड़ में जुड़ गए
और सब मिल कर आदमी को नसीहते देने लगे
आदमी परेशान हो गया और उसने दरवाजा बंद कर लिया
तो कोई बोला...
देखो साले ने दरवाजा बंद कर लिया
पर लोग वही जमे रहे... चिल्लाते... गालियाँ देते...
एक घंटा बीत गया...
एक दिन बीत गया...
एक हफ्ता बीत गया...
एक साल बीत गया...
पर लोग नहीं गए...
लोगों के ठट्ठ के ठट्ठ जमा होते रहे...
चीखते रहे... चिल्लाते रहे... गलियां देते रहे...
पर आदमी ने दरवाजा नहीं खोला और...
फिर लोगो में से कोई बोला...
चलो दरवाजा तोड़ देते हैं
दरवाजा टूटा तो देखा आदमी मर पड़ा था
तो लोगों में से कोई बोला...
देखो साला मर गया
और तब लोग वहां से हटने लगे
अब सुना है कि...
लोग कही और जमा हो रहे है
पुनीत मेहता
5 मई 2009
Monday, June 22, 2009
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