Wednesday, September 3, 2008

विरह

इन बंद दरवाजों पे फिर एक दस्तक हुई है…
फिर किसी के आने की आहट हुई है…
इस ठहरी हुई जिन्दगी के पानी मे
फिर प्यार का एक कंकड़ गिरा है…
फिर उम्मीदों का एक सैलाब उठा है
ए मौला ! अबकी बार मुझ पर अपनी मेहर बरपा दे…
इन औस की बूंदों को इश्क का समंदर बना दे.
बरसो से सूखे पड़े इस देह की और...
एक सदी से प्यासी इस तपती रूह की प्यास बुझा दे...
ए मौला ! इस बार तो मुझे मेरे रुब से मिला दे.
पुनीत मेहता

1 comment:

maahi said...

aapki "virah" namak kavita mujhe behad pasand aai.... main khuda se duaa karungi ki wo aap per apni mehar yun hi banaye rakhe, aap yun hi likhte rahein, hum yun hi padte rahein.............