आज वक़्त फिर से रुक गया है
बीता हुआ कल फिर सामने आ गया है
फिर एक विस्फोट हुआ है
फिर लाशों का एक अम्बार लग गया है
हर बार कहते हैं अब और नहीं होगा
जाने कब उस सूर्य का उदय होगा
जाने कब इन छितरी हुई लाशों से मुक्ति मिलेगी
जाने कब बारूद के इस ढेर से निजात मिलेगी
जाने वो बाज़ार से जिंदा वापस आएगा
जाने कब ये सफ़र फिर हसीं होगा
न जाने कब ये विश्वास फिर आयेगा
कब ये शहर फिर जीने लायक हो पायेगा
इन्ही सब 'कब' 'जाने' या 'फिर' शब्दों में…
आज फिर से वक़्त रुक गया है
जाने कब ये जीवन फिर से चल पायेगा…
ये बीता हुआ वक़्त गुज़र जायेगा
पुनीत मेहता
21 सितम्बर 2008
Sunday, September 21, 2008
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