Friday, September 12, 2008

क्या फर्क पड़ता है…

क्या फर्क पड़ता है कि...
वो सड़क किस फौजी के नाम पर है
बस एक फौजी पदवी के साथ एक उकेरा हुआ नाम है… बेनाम सा

क्या फर्क पड़ता है कि...
वो नाम राम, रहमान, राजिंदर, रोवेन था या कुछ और
आखिर नाम था तो सिर्फ एक फौजी का... अदना सा

क्या फर्क पड़ता है कि...
अगर याद नहीं के वो कौन था... कितनो को याद रखें
यहाँ तो रोज़ नए नाम जुड़ते रहते है अपने नाम के आगे स्वर्गीय लगवाते...
राजनीति के इस हवन में अपनी आहुती देते हुऐ

क्या फर्क पड़ता है कि...
जाने वाला हर नाम अपने पीछे छोड़ जाता है
एक पूरा कुनबा... बेनाम सा
और छोड़ जाता है अपनी मौत से और शहीद होने की पेंशन से जूझते कुछ अपने

हमें क्या... हम तो फिर...
एक और शहर में...
एक और पत्थर पर...
एक और बेनाम सा...
नाम उकेर कर फिर उसे भूल जायेंगे

क्या फर्क पड़ता है...

_________
पुनीत मेहता
30 अगस्त 2008

6 comments:

शोभा said...

क्या फर्क पड़ता है कि...
जाने वाला हर नाम अपने पीछे छोड़ जाता है
एक पूरा कुनबा... बेनाम सा
और छोड़ जाता है अपनी मौत से और शहीद होने की पेंशन से जूझते कुछ अपने
बहुत अच्छा लिखा है. स्वागत है आपका.

شہروز said...

बहुत खूब!आपके तख्लीकी-सर्जनात्मक जज्बे को सलाम.
आप अच्छा काम कर रहे हैं.
फ़ुर्सत मिले तो हमारे भी दिन-रात देख लें...लिंक है:
http://shahroz-ka-rachna-sansaar.blogspot.com/
http://saajha-sarokaar.blogspot.com/
http://hamzabaan.blogspot.com/

Udan Tashtari said...

हिन्दी चिट्ठाजगत में आपका स्वागत है. नियमित लेखन के लिए मेरी हार्दिक शुभकामनाऐं.

वर्ड वेरिपिकेशन हटा लें तो टिप्पणी करने में सुविधा होगी. बस एक निवेदन है.

राजेंद्र माहेश्वरी said...

क्या फर्क पड़ता है कि...

बात तो सही कही आपने

Kavita Vachaknavee said...

नए चिट्ठे का स्वागत है. निरंतरता बनाए रखें.खूब लिखें,अच्छा लिखें.

Anonymous said...

क्या फर्क पड़ता है कि...
जाने वाला हर नाम अपने पीछे छोड़ जाता है
एक पूरा कुनबा... बेनाम सा
और छोड़ जाता है अपनी मौत से और शहीद होने की पेंशन से जूझते कुछ अपने
bahut hi sateek kaha aapne,
hame yad rah jata hai to bas paise kamana