जीवन के ताने मे जिन्दगी का
बाना कम पड़ गया है और…
लोगों की इस भीड़ मे शहर का
आँचल तंग पड़ गया है.
आवाजों के इस शोरगुल में
शब्दों का अकाल पड़ गया है और...
ख्वाहिशों के इस जंगल में
वास्तविकता का वृक्ष सुख गया है.
ओ जुलाहे! तेरा करघा क्यों चुप है!
क्यों ये जीवन में जिन्दगी नही बुन रहा है!
ऐ जुलाहे! इस करघे को फिर चला दे...
इतनी जिन्दगी बुन कि सारे अकाल मिटा दे
... और फिर से चारों ओर
विचारों का बसंत बिखरा दे
पुनीत मेहता
फरवरी 3, 2009
Tuesday, February 3, 2009
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