... चक्की चल रही है और
निकल रहा है आटा
एकदम शुद्ध... एकदम ताज़ा...
ये है जिन्दगी का आटा
ले लो... ले लो... सब ले लो
बनाओं रोटियां गरम गरम...
जो हैं पोष्टिक और नरम नरम
ये हैं बहुत ही अनमोल
पर नहीं लूँगा इसका कोई मोल
सबको दूंगा... पर उन्हें न दूंगा
क्योंकि वो मिलायेंगे इसमें...
लालच का नमक... नफरत का पानी
और उतारेंगे राजनीति की रोटियाँ...
ज़हर भरी, कड़क और बेजानी
पर तुम ज़रूर आना... ले कर जाना
ये स्वादिष्ट और अनमोल आटा
क्योकि है ये...
एकदम शुद्ध... एकदम ताज़ा...
ये है जिन्दगी का आटा
पुनीत मेहता
५ सितम्बर २००९
Wednesday, October 14, 2009
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
1 comment:
आपकी कविता से उस चक्कीवाले की याद आ गई जहाँ हम बचपने में आटा-पिसाने जाया करते थे, और जो आटे से पूरी तरह नहाया हुआ होता था... उसकी पलकें भी आटे से सफेद हो चुकी रहती थीं.. शायद उसका फेफड़ा भी ...
कभी लगता है वो कभी सपने देखता होगा तो आटे के पहाड़ और नदी और ब्रह्मांड ही देखता होगा और कुछ नहीं...
Post a Comment