Tuesday, September 1, 2009

परी, सपने और...

कल रात वो परी फिर आयी थी
कुछ सपने छोड़ गयी
कुछ गीले... कुछ सूखे...
गीलों को सूखाने लगा और
सूखे सपनो को देखने लगा
पहले मे खुश था... सभी प्रसन्न थे
दूसरे मे हस रहा था... लोग भी हस रहे थे
कहीं बच्चों की मासूम किलकारियां थीं...
तो कही अपने ठहाके सुनायी दिये
किसी में साफ़ खुला आसमान था तो...
किसी में ठंडी बयार चल रही थी
कही खुशहाल लहलहाते खेत थे तो...
कही हसती खिलखिलाती दावते थी
किसी में हरा भरा आशियाना था तो...
किसी में अपनों से भरा पूरा घर था
तभी एक दस्तक से चौंका...
लगा परी फिर आ गयी...
देखा तो अखबार आया था
असलियत और वास्तविकता तो साथ लाया था
सपने समेटे... अखबार खोल बैठ गया
..... में धमाके हुए... इतने मरे
..... में जूते चप्पल और कुर्सियां चली
टेलीविजन ने सीधा प्रसारण दिखाया...
देश शर्मिंदा हुआ
...... में किया उस अबला को किया वस्त्रहीन
देश स्तब्ध रह गया
...... इतने बलात्कार... इतनी हत्याएँ... इतनी चोरियां
और कमिश्नर का दावा... कानून व्यवस्था बिलकुल ठीक है
...... पीने के पानी और सांस लेने को हवा की किल्लत्त
...... प्रदेश के पास पैसे की कमी
...... अपनी प्रतिमाओं को स्थापित करने...
उनका अनावरण करने और
फिर दावतों में करोडों फूंके
...... नमक, मसाले, सब्जियां, दालें उछली
..... कारें, बसें, रेलगाडियां लुडकी
अरे! ये सब क्या है? और वो क्या था?
क्या परी नहीं आयी थी? आयी थी शायद...
क्योंकि सपने अब भी समेटे हुए रक्खे थे...
मेरे पास...
सूखते हुए...
सूखने दो... सुख जायेंगे तो फिर से देखूंगा



पुनीत मेहता
३१ अगस्त २००९

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