Monday, July 18, 2011
Wednesday, October 14, 2009
आटा चक्की (दूसरा पीपा)
... चक्की चल रही है और
निकल रहा है आटा
एकदम शुद्ध... एकदम ताज़ा...
ये है जिन्दगी का आटा
ले लो... ले लो... सब ले लो
बनाओं रोटियां गरम गरम...
जो हैं पोष्टिक और नरम नरम
ये हैं बहुत ही अनमोल
पर नहीं लूँगा इसका कोई मोल
सबको दूंगा... पर उन्हें न दूंगा
क्योंकि वो मिलायेंगे इसमें...
लालच का नमक... नफरत का पानी
और उतारेंगे राजनीति की रोटियाँ...
ज़हर भरी, कड़क और बेजानी
पर तुम ज़रूर आना... ले कर जाना
ये स्वादिष्ट और अनमोल आटा
क्योकि है ये...
एकदम शुद्ध... एकदम ताज़ा...
ये है जिन्दगी का आटा
पुनीत मेहता
५ सितम्बर २००९
निकल रहा है आटा
एकदम शुद्ध... एकदम ताज़ा...
ये है जिन्दगी का आटा
ले लो... ले लो... सब ले लो
बनाओं रोटियां गरम गरम...
जो हैं पोष्टिक और नरम नरम
ये हैं बहुत ही अनमोल
पर नहीं लूँगा इसका कोई मोल
सबको दूंगा... पर उन्हें न दूंगा
क्योंकि वो मिलायेंगे इसमें...
लालच का नमक... नफरत का पानी
और उतारेंगे राजनीति की रोटियाँ...
ज़हर भरी, कड़क और बेजानी
पर तुम ज़रूर आना... ले कर जाना
ये स्वादिष्ट और अनमोल आटा
क्योकि है ये...
एकदम शुद्ध... एकदम ताज़ा...
ये है जिन्दगी का आटा
पुनीत मेहता
५ सितम्बर २००९
आटा चक्की (पहला पीपा)
मैं एक चक्की वाला हूँ
रोज़ कुछ न कुछ पीसता रहता हूँ...
... कभी सपने और आशाएं
... कभी प्यार और विश्वास
... कभी विचार और भावनाएं
... कभी उम्मीद और हकीकत
... कभी शब्द और अभिवयक्ति
और निकलता हूँ...
सफ़ेद, शुद्ध, महीन जिन्दगी का आटा...
जीवन से भरी नरम नरम रोटियां बनाने को...
(क्रमशः)
रोज़ कुछ न कुछ पीसता रहता हूँ...
... कभी सपने और आशाएं
... कभी प्यार और विश्वास
... कभी विचार और भावनाएं
... कभी उम्मीद और हकीकत
... कभी शब्द और अभिवयक्ति
और निकलता हूँ...
सफ़ेद, शुद्ध, महीन जिन्दगी का आटा...
जीवन से भरी नरम नरम रोटियां बनाने को...
(क्रमशः)
Tuesday, October 13, 2009
चुम्बक
उस दिन अलमारी के उपर
स्कूल पुराने बस्ते में
एक चुम्बक मिल गया...
और मिलीं कुछ छोटी छोटी पेन्सिलें,
एक रबड़, कुछ छोटे गोल पत्थर,
कुछ कौडियाँ, कागज़ के कुछ पुर्जे,
कुछ सरकंडे, थोडी सी मिटटी और
उसकी एक छोटी सी... मटमैली सी तस्वीर
हमेशा सोचता था उन दिनों को...
क्यों नहीं भूलता उन दिनों को
ये तो शायद वो बस्ते में रखा
चुम्बक ही है जिसने...
रोके रखा है यादों को... जिन्दगी को
पुनीत मेहता
६ सितम्बर २००९
स्कूल पुराने बस्ते में
एक चुम्बक मिल गया...
और मिलीं कुछ छोटी छोटी पेन्सिलें,
एक रबड़, कुछ छोटे गोल पत्थर,
कुछ कौडियाँ, कागज़ के कुछ पुर्जे,
कुछ सरकंडे, थोडी सी मिटटी और
उसकी एक छोटी सी... मटमैली सी तस्वीर
हमेशा सोचता था उन दिनों को...
क्यों नहीं भूलता उन दिनों को
ये तो शायद वो बस्ते में रखा
चुम्बक ही है जिसने...
रोके रखा है यादों को... जिन्दगी को
पुनीत मेहता
६ सितम्बर २००९
Tuesday, September 1, 2009
परी, सपने और...
कल रात वो परी फिर आयी थी
कुछ सपने छोड़ गयी
कुछ गीले... कुछ सूखे...
गीलों को सूखाने लगा और
सूखे सपनो को देखने लगा
पहले मे खुश था... सभी प्रसन्न थे
दूसरे मे हस रहा था... लोग भी हस रहे थे
कहीं बच्चों की मासूम किलकारियां थीं...
तो कही अपने ठहाके सुनायी दिये
किसी में साफ़ खुला आसमान था तो...
किसी में ठंडी बयार चल रही थी
कही खुशहाल लहलहाते खेत थे तो...
कही हसती खिलखिलाती दावते थी
किसी में हरा भरा आशियाना था तो...
किसी में अपनों से भरा पूरा घर था
तभी एक दस्तक से चौंका...
लगा परी फिर आ गयी...
देखा तो अखबार आया था
असलियत और वास्तविकता तो साथ लाया था
सपने समेटे... अखबार खोल बैठ गया
..... में धमाके हुए... इतने मरे
..... में जूते चप्पल और कुर्सियां चली
टेलीविजन ने सीधा प्रसारण दिखाया...
देश शर्मिंदा हुआ
...... में किया उस अबला को किया वस्त्रहीन
देश स्तब्ध रह गया
...... इतने बलात्कार... इतनी हत्याएँ... इतनी चोरियां
और कमिश्नर का दावा... कानून व्यवस्था बिलकुल ठीक है
...... पीने के पानी और सांस लेने को हवा की किल्लत्त
...... प्रदेश के पास पैसे की कमी
...... अपनी प्रतिमाओं को स्थापित करने...
उनका अनावरण करने और
फिर दावतों में करोडों फूंके
...... नमक, मसाले, सब्जियां, दालें उछली
..... कारें, बसें, रेलगाडियां लुडकी
अरे! ये सब क्या है? और वो क्या था?
क्या परी नहीं आयी थी? आयी थी शायद...
क्योंकि सपने अब भी समेटे हुए रक्खे थे...
मेरे पास...
सूखते हुए...
सूखने दो... सुख जायेंगे तो फिर से देखूंगा
पुनीत मेहता
३१ अगस्त २००९
कुछ सपने छोड़ गयी
कुछ गीले... कुछ सूखे...
गीलों को सूखाने लगा और
सूखे सपनो को देखने लगा
पहले मे खुश था... सभी प्रसन्न थे
दूसरे मे हस रहा था... लोग भी हस रहे थे
कहीं बच्चों की मासूम किलकारियां थीं...
तो कही अपने ठहाके सुनायी दिये
किसी में साफ़ खुला आसमान था तो...
किसी में ठंडी बयार चल रही थी
कही खुशहाल लहलहाते खेत थे तो...
कही हसती खिलखिलाती दावते थी
किसी में हरा भरा आशियाना था तो...
किसी में अपनों से भरा पूरा घर था
तभी एक दस्तक से चौंका...
लगा परी फिर आ गयी...
देखा तो अखबार आया था
असलियत और वास्तविकता तो साथ लाया था
सपने समेटे... अखबार खोल बैठ गया
..... में धमाके हुए... इतने मरे
..... में जूते चप्पल और कुर्सियां चली
टेलीविजन ने सीधा प्रसारण दिखाया...
देश शर्मिंदा हुआ
...... में किया उस अबला को किया वस्त्रहीन
देश स्तब्ध रह गया
...... इतने बलात्कार... इतनी हत्याएँ... इतनी चोरियां
और कमिश्नर का दावा... कानून व्यवस्था बिलकुल ठीक है
...... पीने के पानी और सांस लेने को हवा की किल्लत्त
...... प्रदेश के पास पैसे की कमी
...... अपनी प्रतिमाओं को स्थापित करने...
उनका अनावरण करने और
फिर दावतों में करोडों फूंके
...... नमक, मसाले, सब्जियां, दालें उछली
..... कारें, बसें, रेलगाडियां लुडकी
अरे! ये सब क्या है? और वो क्या था?
क्या परी नहीं आयी थी? आयी थी शायद...
क्योंकि सपने अब भी समेटे हुए रक्खे थे...
मेरे पास...
सूखते हुए...
सूखने दो... सुख जायेंगे तो फिर से देखूंगा
पुनीत मेहता
३१ अगस्त २००९
Friday, August 28, 2009
अपना...
जिसे ख्वाबों में देखा वो कभी न मिला...
जिसका तसुवर भी न था वोही अपना निकला
जब भी नज़र उठाई कोई अपना ना मिला...
जब साया ही अपना न था तो औरों से क्या गिला.
जब भी गिला किया पलट के हमे शिकवा ही मिला
हमेशा मेरे.. अपने.. तुम्हारे.. पराये.. किया पर कुछ भी ना मिला.
पुनीत मेहता
अगस्त २६, २००९
जिसका तसुवर भी न था वोही अपना निकला
जब भी नज़र उठाई कोई अपना ना मिला...
जब साया ही अपना न था तो औरों से क्या गिला.
जब भी गिला किया पलट के हमे शिकवा ही मिला
हमेशा मेरे.. अपने.. तुम्हारे.. पराये.. किया पर कुछ भी ना मिला.
पुनीत मेहता
अगस्त २६, २००९
Tuesday, August 25, 2009
हम आज़ाद हैं...
इन्कलाब जिंदाबाद... वन्दे मातरम्...
अंग्रेजों भारत छोडो... तोडी बच्चों वापस जाओ
भागो भागो.... फायर... हे राम....
चारों तरफ मची थी अफरा तफरी
चीख पुकार थी... लाशें थी बिखरी
यकायक सब शांत हो गया
एक खामोश सन्नाटा पसर गया
पुरानी यादों का सपना था जो अब सो गया
खुश हुआ कि ये सब तो बीत गया
देश तो कभी का आजाद हो गया
खुश हो रहा था कि शोर फिर शुरू हो गया
चीख पुकार की आवाजों से माहोल फिर उग्र हो गया
लगा कि सपना फिर से तो नहीं शुरू हो गया
और शांति... सुकून भरे जीवन का भ्रम टूट गया
फिर चलने लगी गोलियां... धमाके भी हो गए
लगे लोग चीखने चिल्लाने... लाशों में अपने खो गए
सब वोही तो आवाजें है सपने वाली
पर कहाँ है वो बुलंद नारे लगते लोग
वो जान बचा के भागते तोडी बच्चें
वो सब नहीं हैं क्योकि अब देश आज़ाद हैं
हम आज़ाद हैं...
अपने ही लोगों को खुद ही लूटने को
हम आज़ाद हैं...
अपनी लाशों को सफेदपोश गिद्धों नुचवाने को
हम आज़ाद हैं... ये आजादी हैं... शायद...?
पुनीत मेहता
९ अगस्त २००९
अंग्रेजों भारत छोडो... तोडी बच्चों वापस जाओ
भागो भागो.... फायर... हे राम....
चारों तरफ मची थी अफरा तफरी
चीख पुकार थी... लाशें थी बिखरी
यकायक सब शांत हो गया
एक खामोश सन्नाटा पसर गया
पुरानी यादों का सपना था जो अब सो गया
खुश हुआ कि ये सब तो बीत गया
देश तो कभी का आजाद हो गया
खुश हो रहा था कि शोर फिर शुरू हो गया
चीख पुकार की आवाजों से माहोल फिर उग्र हो गया
लगा कि सपना फिर से तो नहीं शुरू हो गया
और शांति... सुकून भरे जीवन का भ्रम टूट गया
फिर चलने लगी गोलियां... धमाके भी हो गए
लगे लोग चीखने चिल्लाने... लाशों में अपने खो गए
सब वोही तो आवाजें है सपने वाली
पर कहाँ है वो बुलंद नारे लगते लोग
वो जान बचा के भागते तोडी बच्चें
वो सब नहीं हैं क्योकि अब देश आज़ाद हैं
हम आज़ाद हैं...
अपने ही लोगों को खुद ही लूटने को
हम आज़ाद हैं...
अपनी लाशों को सफेदपोश गिद्धों नुचवाने को
हम आज़ाद हैं... ये आजादी हैं... शायद...?
पुनीत मेहता
९ अगस्त २००९
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